जब पुरुष के तन से मन तक रुचती मेहन्दी :- अंकुश कबीर

पता नही क्यों मुझे बचपन से ही हाथों में मेहंदी रचवाना अच्छा लगता था। जब तक छोटा था लोग बचपना कहकर इसे इग्नोर कर देते थे परन्तु उम्र के साथ लोगों का प्रतिरोध करना स्वाभाविक था। मुझे याद है कि मैं हाईस्कूल की पढ़ाई कर रहा था  और  उसी दरम्यान एक दिन हाथों में मेहंदी रचवाकर मैं स्कूल गया था। अग्रिमपंक्ति में बैठे हुए मेरे हाथों पर मेरे अध्यापक का अचानक निगाह पड़ा। उन्हें उनका एक होनहार शिष्य हाथ से निकलता हुआ प्रतीत हुआ। उन्होंने मुझे लज्जित करने के लिए भरी कक्षा के सामने बुलाकर अपना हाथ दिखाने के लिए कहा। जैसा की अपेक्षित था सभी लोग हसने लगे।परन्तु मुझे मेहंदी लगे हाथ इतने आकर्षक लगते थें कि मुझे इसकी वजह से कभी लज्जा महसूस नही हुआ। लोगो की उम्मीदों के विपरीत मैं कक्षा के सामने खड़े होकर सभी साथियों को अपना हाथ खुशी से दिखाते हुए उनसें उसकी खूबसूरती के बारे में बात करना शुरू कर दिया। 

एक उम्र के बाद लोगो ने मुझे इसके बारे में डांटना छोड़ दिया संभवतः वे इसके आदी हो गए थे परन्तु जो अप्रत्याशित घटित होता था वह बच्चों का कौतूहल था। बच्चों को मेरा मेहन्दी रचवाना सुहाता नही था। दरअसल आने वाली पीढियों को हमारी पीढियां अपना पूरा ज्ञान हस्तांतरित कर देती हैं चाहे वो आने वाले समय के लिए उपयुक्त हो या नहीं और कई बार नवीन पीढ़ी के न मानने पर कड़े प्रतिरोध भी व्यक्त करते हैं।
अगर हम सौन्दर्य को इतिहास में देखें तो पाएंगे की प्रारम्भ में सभी मानव चाहे वे स्त्री हो या पुरूष समान रूप से प्रशाधन करते थें। पुरातत्त्व ने तो कई चौकाने वाले साक्ष्य उपस्थित किये हैं। महदहा जैसे कई पुरास्थलों से यह स्पष्ट होता है कि महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों के साथ आभूषण अधिक प्राप्त होते हैं।
आज कई वर्षों बाद ऐसी परिस्थितियां उपस्थित हुई कि मेरे हाथ मेहन्दी से सुगन्धित हो रहे हैं।

      लेख पर आपके विचार आमंत्रित हैं....

                      © ✍️ अंकुश कबीर
लेखक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भारतीय प्राचीन इतिहास,संस्कृति एवम पुरातत्व  विभाग में परस्नातक छात्र के रूप में अध्यनरत हैं। सामाजिक मुद्दों पर उनका विचार प्रकट करते रहते है। 

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