समान नागरिक संहिता
लेखक-आशुतोष मिश्रा
विधि संकाय
काशी हिंदू विश्वविद्यालय
(1)विषय- भारत में विभिन्न धर्मों के लोग रहते है सबकी अपनी आस्था और उन्हें अपने धर्म को पालन करने की स्वत्रंतता भी , और यही कारण है कि भारत में अलग-अलग धर्म के अलग-अलग व्यक्तिगत सिविल काननू है जिसके आधार पर वे अपने लोगों के अधिकारों को सुरक्षित करने का प्रयास करते है परंतु भारत में अलग-अलग सिविल विधि होने के कारण ,देश की एकता ,महिलाओं के अधिकार, समानता का अधिकार, पूर्ण रूप से नहीं है , कही महिलाओं को पति की सम्पत्ति में अधिकार है तो कही नही,कही किसी धर्म के सिविल कानून में पुरुषों को एक शादी करने का अधिकार है कही 4 शादी, कही तलाक पर अलग-अलग कानून है तो कही उत्तराधिकारी और बच्चे को गोद लेने का अलग क़ानून। कुछ इन्ही विषयों से जुड़ा है हमारा आज का विषय समान नागरिक संहिता।
(2)समान नागरिक संहिता है क्या:- भारत के संविधान के भाग 4 राज्य के नीति निर्देशक तत्व के अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि राज्य , भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।
अर्थात समान नागरिक संहिता(Uniform civil code) का अर्थ होता है की भारत में रहने वाले हर नागरिक के लिए एक समान क़ानून होना चाहिए वह किसी धर्म या जाति का क्यों न हो समान नागरिक संहिता में विवाह, तलाक ,उत्तराधिकार,गोद लेने(Adoption)से सम्बंधित क़ानून सभी धर्मों पर समान रूप से लागू होगा।
(3)वर्तमान में इस विषय पर भारत में स्थित:-
भारत में कुछ सिविल कानून पूर्णतः समान नागरिक संहिता पर है
(1) व्यवहार प्रक्रिया संहिता 1908(Civil procedure code 1908)
(2)भारतीय संविदा अधिनियम 1872(Indian contract act 1872)
(3)सम्पति हस्तांरण अधिनियम 1882(Transfer of property act 1882)
(4)वस्तु विक्रय अधिनियम 1930 (sale of goods Act 1930)
(5) भागीदारी अधिनियम 1932 (Partnership act 1932)
(6)भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872(Evidence act 1872)
ये ऐसे कुछ क़ानून है जो सभी धर्मों के लोगों पर समान रूप लागू होते है ।
परन्तु कुछ ऐसे भी विषय है जिनमें अलग-अलग धर्म के लोगों का अलग-अलग क़ानून है जैसे-विवाह(marriage),तलाक(Divorce),उत्तराधिकार से सम्बंधित कानून (Laws related to succession), बच्चा गोद (Child adoption) लेने सम्बंधित कानून में विभिन्नता है
जहाँ हिंदू ,सिख ,जैन और बौद्ध धर्म के व्यक्तिगत कानून हिन्दू विधि से संचालित किए जाते है ( हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956,हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम 1956 ,हिन्दू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम 1956) जो कि सामूहिक रुप से हिंदू संहिता के रूप से जाना जाता है ।
वही इन विषयों पर मुस्लिम और ईसाई धर्म के अपने अलग क़ानून है । मुस्लिम के लिए मुस्लिम लॉ बोर्ड है जो कि शरीयत क़ानून पर के माध्यम पर आधारित निर्णय लेता है।
और वही ईसाई धर्म का बाइबिल इन विषयों पर विधि का कार्य करती है ।
गोवा भारत का एक मात्र राज्य जहाँ पर समान नागरिक संहिता लागू है- कारण यह था कि आजादी के बाद गोवा राज्य ने पुर्तगाली नागरिक संहिता को अपनाया और आज भी वहाँ पर समान नागरिक संहिता लागू है ।
(4)हमारे संविधान निर्माताओं की सोच:- 1946 में गठित संविधान सभा में जहाँ एक ओर समान नागरिक संहिता को अपनाकर समाज में सुधार चाहने वाले डॉ भीमराव अंबेडकर जी जैसे लोग थे वही धार्मिक रीति रिवाजों पर आधारित निजी कानूनों को बनाए रहने के पक्षधर मुस्लिम प्रतिनिधि थे, एक समय तो इसे मौलिक अधिकार के रूप में रखने की चर्चा हुई थी परंतु जब मत पड़े तो 5:4 के बहुमत से यह प्रस्ताव निरस्त हो गया , लेकिन इसे अंत में नीति निर्देशक तत्व के रूप अनुच्छेद 44 में शामिल कर लिया गया ।
लेकिन नीति निर्देशक तत्व में शामिल होने से इसको उतना महत्व अभी तक नही दिया गया , भाग 4 के अनुच्छेद 37 नीति निर्देशक तत्वों के महत्व को कम कर देता , अनुच्छेद 37 के अनुसार नीति निर्देशक तत्वों को न्यायालय द्वारा प्रवर्तित नहीं कराया जा सकता है इसका अर्थ हुआ कि नीति निर्देशक तत्वों के उल्लंघन पर कोई कार्यवाही नहीं होगी जब तक उस पर अलग से कोई विधान न बना दिया जाए।
(5)उच्चतम न्यायालय का इस विषय पर मत:-
(i)मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानों बेगम मामला 1985 S.c.- इस मामले की सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने संसद को समान नागरिक संहिता बनाने के लिए कहा परंतु उस समय की कांग्रेस की सरकार (प्रधानमंत्री राजीव गाँधी) ने इस पर कोई कदम नहीं उठाया बल्कि आने वाले चुनाव को देखते हुए इस मामले में दिए हुए निर्णय के महत्व को कम करने के लिए संसद के माध्यम से मुस्लिम महिला(तलाक अधिकार संरक्षण) कानून 1986 को लागू किया एवं तलाक मामले में निर्णय लेने का अधिकार मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को दे दिया।
(ii)सरला मुद्गल केस 1995(S.c )- इस मामले में भी उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 44 के तहत सरकार को निर्देश दिया था कि वह समान नागरिक संहिता बनाए ।
(iii) जॉन वल्लामेट्टम बनाम भारत संघ(1997)- न्यायमूर्ति खरे ने कहा कि "अनुच्छेद 44 में वर्णित है कि राज्य भारत के सम्पूर्ण राज्यक्षेत्र में भी सभी नागरिकों को एक समान नागरिक संहिता प्रदान करने का प्रयास करेगा । लेकिन दुःख की बात यह है कि संविधान में वर्णित अनुच्छेद 44 को ढंग से लागू नहीं किया गया है।
(6)समान नागरिक संहिता को लागू करने में चुनौतियाँ:-
(A) संवैधानिक चुनौतियाँ:-
(i)धर्म की स्वतंत्रता, समानता के अधिकार का टकराव करती है।
(ii) अनुच्छेद 25 में धर्म के मौलिक अधिकार का उल्लेख है।
(iii) अनुच्छेद 26(B) में कहा गया है कि प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय के अधिकार को धर्म के मामलों में अपने स्वयं के मुद्दों का प्रबंधन करने का अधिकार है।
(iv)अनुच्छेद 29 में एक विशिष्ट संस्कृति के संरक्षण का अधिकार है।
(B) सामाजिक -राजनीतिक चुनौतियाँ-
(i) धर्म-जाति में विविधता:- हमारे देश मे अलग-अलग धर्म के लोग रहते है हिन्दू सबसे अधिक उसके बाद मुस्लिम धर्म के लोग और फिर अन्य फिर अन्य धर्म के ।
जिसके कारण समान नागरिक संहिता विषय पर लोग एक साथ नहीं है
(ii) किसी विशेष धर्म के लिए बनी राजनीतिक पार्टियां:- धर्म के आधार पर बनी राजनैतिक पार्टियाँ नहीं चाहती कि समान नागरिक संहिता लागू हो क्योंकि इससे उनके राजनैतिक लाभ पर फर्क पड़ेगा या ये समझे कि उनके वोट बैंक पर फर्क पड़ेगा।
(iii) सरकारों की कमजोर इच्छाशक्ति:- अभी तक कि सभी सरकारे इस विषय पर किसी प्रकार की इच्छा जाहिर नहीं कि क्योंकि उनको लगता है इससे उनके खिलाफ एक समुदाय के लोग उठ खड़े होंगे और उसका प्रभाव उनके वोट बैंक पर पड़ेगा।
(C)समान नागरिक संहिता पर विधि आयोग का पक्ष:-
विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा वर्ष 2016 में बनी विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में निम्न बातें रखी
(i)समान नागरिक संहिता का मुद्दा मूलाधिकारों के तहत अनुच्छेद 14 से 25 के बीच द्वंद से प्रभावित है।
(ii)पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा की जा रही कार्यवाही के मद्देनजर विधि आयोग ने कहा कि महिला अधिकारों को वरीयता देना प्रत्येक धर्म और संस्थान का कर्तव्य होना चाहिए।
(iii) सभी धर्मों के पर्सनल लॉ की समीक्षा की जाए और उन्हें संहिताबद्ध किया जाए।
(iv)लड़को और लड़कियों की विवाह की 18 की आयु को न्यूनतम मानक के रूप में तय करने की सिफारिश की गई जिससे समाज मे समानता स्थापित की जा सके।
(7)समान नागरिक संहिता लागू होने से क्या प्रभाव होगा:-
(i)सामान नागरिक संहिता के तहत कानूनों का एक ऐसा समूह तैयार किया जाएगा जो धर्म की परवाह किए बगैर सभी नागरिकों के व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करेगा जो वर्तमान समय की मांग है| वास्तव में यह सच्ची पंथनिरपेक्षता की आधारशिला होगी।
(ii)इससे धार्मिक आधार पर महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को समाप्त करने में मदद मिलेगी बल्कि देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को मजबूत बनाने और एकता को बढ़ावा देने में भी मदद मिलेगी|
(iii) वास्तव में हमारी सामाजिक व्यवस्था अन्याय, भेदभाव और भ्रष्टाचार से भरी हुई है एवं हमारे मौलिक अधिकारों के साथ उनका टकराव चलता रहता है, अतः उसमें सुधार करने की जरूरत है| जैसा की हम जानते हैं कि हमारे देश में एक दण्ड संहिता है जो देश में धर्म, जाति, जनजाति और अधिवास की परवाह किए बगैर सभी लोगों पर समान रूप से लागू होती है| लेकिन हमारे देश में तलाक एवं उत्तराधिकार के संबंध में एकसमान कानून नहीं है और ये विषय व्यक्तिगत कानूनों द्वारा नियंत्रित होते हैं|
(8)निष्कर्ष :- महात्मा गांधी ने कहा था कि मैं नहीं चाहता हूँ कि मेरे सपनो का भारत में सिर्फ एक धर्म का विकास हो , बल्कि मेरी दिली इच्छा है कि मेरा देश से के लोग कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़े। मेरे विचार से अब वह समय आ गया है कि संसद को समान नागरिक संहिता पूरे देश मे लागू करें , क्योंकि हम स्वंतत्र तो 1947 में हुए परन्तु पुर्ण रुप से अभी तक नहीं हो पाए , भारत के उद्देशिका के कई शब्द ,पंथनिरपेक्ष,समानता, राष्ट्र की एकता और अखंडता, बंधुता वास्तविक रुप में अपने अस्तित्व में तभी आएंगे , जब सरकार इस विषय पर कानून बनाएगी, अतः सभी नागरिकों के मौलिक और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए धर्म की परवाह किये बिना समान नागरिक संहिता लागू किया जाना चाहिए।
✍️© आशुतोष मिश्रा
लेखक वर्तमान में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के विधि संकाय में लॉ के छात्र के रूप में अध्ययनरत हैं। कानून के को आम भाषा में लोगो के बीच ला कर लोगो को कानून के प्रति कर रहें हैं। उसके साथ सामाजिक कार्य से जुड़े रहते हुए स्वतंत्र लेखन कर रहें हैं ।
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