प्रेमचंद : युग निर्माता ;- प्रीति रावत

प्रेमचंद ने हिंदी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी शती के साहित्य का मार्गदर्शन किया । उनका लेखन हिंदी साहित्य की एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिंदी के विकास का अध्ययन अधूरा होगा । वे एक संवेदनशील लेखक , सचेत नागरिक ,  कुशल वक्ता तथा सुधी संपादक थे । 

31 जुलाई 1880 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी के लमही ग्राम में जन्मे धनपत राय जो आगे चलकर मुंशी प्रेमचंद बने , उन्होंने हिंदी साहित्य को निश्चित दिशा दिशा दी । प्रेमचंद का साहित्य सामाजिक जागरूकता के प्रति प्रतिबद्ध है,  उनका साहित्य आम आदमी का साहित्य है । सामाजिक सुधार संबंधी भावना का प्रबल प्रवाह उन्हें कभी - कभी एक कल्पित यथार्थवाद की ओर खींच ले जाता है फिर भी कल्पना और वायवीयता से कथासाहित्य को निकालकर उसे समय और समाज के रूबरू खड़ा करके वास्तविक जीवन के सरोकारों से जुड़ा ।

 इनकी कहानियों में जहां एक और रूढ़ियों , अंधविश्वासों ,  अंधपरंपराओं पर कड़ा प्रहार किया गया है वहीं दूसरी ओर मानवीय संवेदनाओं को भी उभारा गया है । 'सेवासदन' और 'कायाकल्प' में जहां सांप्रदायिक समस्या उठाई गई है , वहीं 'सेवासदन' , 'रंगभूमि' , 'कर्मभूमि' और 'गोदान' में अंतर्जातिय विवाह की । समाज में नारी की स्थिति और अपने अधिकारों के प्रति उनकी जागरूकता इनके लगभग सभी उपन्यासों में देखने को मिलती है । 'गबन' और 'निर्मला' में  मध्यम वर्ग की कुण्ठाओं का बड़ा ही स्वभाविक और सजीव चित्रण किया गया है । हरिजनों की स्थिति और उनकी समस्याओं को 'कर्मभूमि' में सर्वोत्तम रूप से उजागर किया गया है ।

 प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह 'सोज़े वतन'  के नाम से जून 1908 में प्रकाशित हुआ इसी संग्रह की पहली कहानी दुनिया का सबसे अनमोल रतन को आम तौर पर उनकी पहली प्रकाशित कहानी माना जा रहा है । उनके जीवनकाल में कुल 9 कहानी संग्रह  प्रकाशित हुए -  'सोज़े वतन' , 'सप्त  सरोज' ,  'नवनिधि' ,  'प्रेमपूर्णिमा' , 'प्रेम-पचीसी' , 'प्रेम-प्रतिमा' ,  'प्रेम द्वादशी' ,  'समय्यात्रा' ,  'मानसरोवर: भाग-1 व भाग-2'  और 'कफ़न' ।  उनकी मृत्यु के बाद उनकी कहानियां 'मानसरोवर' शीर्षक से आठ भागों में प्रकाशित हुई ।

 प्रेमचंद जी का पहला उपन्यास 'सेवासदन' 1918 में प्रकाशित हुआ ।  इसी के साथ नए युग का सूत्रपात होता है इसे  'प्रेमचंद युग' या हिंदी उपन्यास का 'विकास युग'  के नाम से जाना जाता है । प्रेमचंद जी के उपन्यासों में सभी गुण मौजूद हैं ।  वे मनोरंजन के साधन भी हैं और सत्य के वाहक भी ।  इनके उपन्यासों की सबसे प्रमुख विशेषता है आदर्शवादिता ।  चरित्रों और उसकी प्रवृत्तियों का निर्देश करने में वे आदर्शोंन्मुखी हैं ।  इस प्रकार 'सेवासदन' से लेकर 'कर्मभूमि' तक प्रेमचंद जी का सुधारवादी और आदर्शवादी रूप  मिलता है । 
'कर्मभूमि' प्रेमचंद जी का अंतिम अपूर्ण उपन्यास है । जिसमें क्रांतिकारी भावनाओं के दर्शन होते हैं । प्रेमचंद जी ने समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों की परस्पर स्थिति और उनके संस्कार  चित्रित किए करने वाले उपन्यास 'रंगभूमि' , 'कर्मभूमि' की रचना की । 

प्रेमचंद जी की कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियां हैं । उन्होंने 1930 में बनारस से अपना मासिक पत्रिका हंस का प्रकाशन शुरू किया। 1932 में उन्होंने हिंदी साप्ताहिक पत्र जागरण का प्रकाशन आरंभ किया। उन्होंने लखनऊ में 1936 में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता की।      उन्होंने उपन्यास , कहानी , नाटक , समीक्षा , लेख , संपादकीय ,  संस्मरण आदि अनेक  विधाओं में साहित्य की सृष्टि की , किंतु प्रमुख रूप से वह कथाकार हैं । उन्हें अपने जीवनकाल में  ही "उपन्यास सम्राट" नाम बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरदचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा  मिल गई थी । उन्होंने कुल 15  उपन्यास , 300 से कुछ अधिक  कहानियां , 3 नाटक , 10 अनुवाद , 7 बाल पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के  लेख , संपादकीय , भाषण, भूमिका , पत्र आदि की रचना की । 

प्रेमचंद जी ने अपने जीवन में कई अद्भुत कृतियां लिखी हैं ।तब से लेकर आज तक हिंदी साहित्य में ना ही उनके जैसा कोई हुआ है और ना ही  कोई होगा ।  अपने जीवन के अंतिम दिनों के 1 वर्ष को छोड़कर उनका पूरा समय वाराणसी और लखनऊ में गुजरा जहां उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया और अपना साहित्य- सृजन करते रहे । 8 अक्टूबर , 1936 को जलोदर रोग से उनका  देहावसान हुआ ।


                     ✍️©- प्रीति रावत
लेखिका वर्तमान में महिला महाविद्यालय ,काशी हिंदू विश्वविद्यालय की छात्रा हैं व स्वतंत्र लेखन कर रही है।

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