बच्चे जब पहली बार जानते है की हवाई जहाज कोई इंसान उड़ाता है तो उनके मन में भी पायलट बन आकाश में उड़ने की इक्षा होती है। बात तब की जब मैंने फ्रांसिस बैकन की एक निबंध 'of travel' पढ़ी थी तब मेरे मन में भी आया की कहीं अच्छी जगह घुमा जाये। दशहरा का समय चल रहा था, एक मित्र ने बताया बनारस की रामलीला पूरे विश्व में प्रसिद्ध है,तो उस आपराधिक प्रविर्ती के दोस्त का बात काटने का सवाल ही नही था। कुल 9 जन तैयार हो गए जाने को, मेरे मन में तो पहले से ही एक घमंड की भावना आ गयी की मैं उन चंद लागों में होऊँगा जिसने इतनी प्रसिद्ध रामलीला को देखा। दुर्भाग्यवश एक दोस्त घर चला गया तो हम अब 8 लोग ही गए।दो ऑटो किराया पर लेकर इतने श्रद्धाभाव से निकले की गाड़ी में बज रही भोजपुरी गाने भी हमें थिरका नहीं पाये। गाड़ी में मैं मोबाइल में different poses for selfie सर्च करने में व्यस्त था,वो अपनी श्रद्धा पर आधुनिकता नाम की मुहर लगा के अपनी यात्रा को जन स्वीकृति दिलवानी जो थी। गाड़ी के वहाँ पहुँचते ही सब लोगों का मुँह उतर आया, सिवाय मेरे। कारण यह था की उस मेले में सिर्फ एक ही लड़की गयी थी वो भी मेरे अलावा उसे किसी ने नही देखा। अब हमारे पुर्णभक्ति मे ही रहने का कारण मिल गया था।
अँधेरा जैसे ही हुआ कलाकारों ने कला प्रस्तुति प्रारंभ की। उस दिन शायद किष्किंधा कांड हो रही थी। एक टिलेनुमा जगह पर मंच बना था जहाँ राम और लक्ष्मण का वार्तालाप होने वाला था, नीचे जनता बैठी थी, ठीक उसी प्रकार जैसे NCERT की इतिहास की किताबों में गरीब अहिंसक आंदोलन कर रहे होते है,एकदम black and white दृश्य। आधुनिकता के नाम पर बस हमारा दिमाग और हमारे मोबाइल उपस्थित थे। क्योंकि न तो वहाँ कोई बिजली की बल्ब जल रही थी, ना ही आवाज़ के गूंजने के लिए dj की ही व्यवस्था थी। उतनी परम्परागत तरीके से कोई धार्मिक आयोजन शायद ही आज विश्व के किसी कोने में संपन्न होती होगी। हमलोग भी टीले के नीचे बैठे थे पर आपसी वार्तालाप में ही मसगुल थे। थोड़ी देर बाद कुछ लोगों की आवाज़ आयी की काशी के राजा पधार चुके है, और साथ में राजकुमारी भी आयी है।दरअसल रामलीला के पूरे 30 दिन काशी के राजा मंचन स्थल पर आते है उसके बाद ही कार्यक्रम प्रारम्भ होता है।राजकुमारी का नाम सुनते ही सबकी बांछे खिल उठी। हम फ़ुर्तिले ढंग से राजा के गाड़ी की तरफ दौड़े। परंतु वहाँ जाने पर मानो जैसे दिल के अरमाँ आँसुओ में बह गये, क्योंकि राजकुमारी की उम्र लगभग 65 साल होगी । अब अपनी किस्मत को कोसते हुए हम फिर पुनः मंच के पास पहुंचे। राजा समेत सभी लोगों ने टॉर्च की मदद से रामचारितमानस का पाठ प्रारंभ किया।राजा के चारों ओर सैनिकों की अभेद किला बन गयी। अब वहाँ से हिलना भी मुश्किल था क्योंकि सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए राजा के पास के 30 मीटर के क्षेत्र में आप हिल नही सकते। हम राजा के कुछ सैनिकों को गौर से देख रहे थे ,उनके हालत देखकर मन में विचार आ रहा था की दिनदयाल उपाध्याय ने शायद इन्ही के लिए अंत्योदय व्यवस्था की बात सोची होगी। इसी बीच हमारे एक दोस्त ने अंधेरे मे मोबाइल का फ्लैश चमकाया, दरअसल वो राजा की तस्वीर अपने कैमरा मे लेना चाहता था, तुरंत राजा के सिपाही उसके तरफ लपके, बड़ी मिन्नतों के बाद उनसे पीछा छूटा। उसी वक्त एक महाशय को वहाँ से अपने घर जाना था।काम बहुत जरूरी लग रहा था, जिसे बिना लिखे ही शायद आपलोग समझ ले। पर राजा के सैनिको ने उसे जाने नहीं दिया।कुछ देर तक उनके बीच व्यंग के शब्दबाण चल रहे थे, पर ये हमारे लिए हास्य का स्रोत् था।
अंत में राजा के एक सैनिक ने उसे ' राजा से बड़ हवे तु ' बोलकर बैठा दिया। हमने ' राजा से बड़ हवे तु 'शब्द को meme के रूप में यादगार बना लिया। वहाँ से निकलते समय एक महाराज मोबाइल पर अपनी किसी दोस्त से बात करने के चक्कर में नाली की भेंट चढ़ गए,जिससे हमारे पास रास्ते भर उनकी खिंचाई करने का एक मुद्दा भी मिल गया।मंचन के अंत होने पर हमलोग कुछ खाने के लिये निकले। संयोग से उस दिन एक मित्र का जन्म दिवस भी था, और भोजन का प्रबंध उन्ही को करना था। अब हमलोग जलेबी की दुकान पर जम गए और खाना प्रारम्भ कर दिये।जब पैसे देने की बारी आयी तो देखे जिनको पैसा देना था वो तो महाराज अभी तक आये नही थे भीड़ मे कहीं गुम हो गये थे, और अपनी आदतानुसार मोबाइल हॉस्टल में ही छोड़ के आये थे।आधे घंटे के अथक खोज के बाद उन्हें ढूंढा गया। फिर बिल भरके गुब्बारा खरीदते हुए हमलोग वापस हॉस्टल को आ गये। किसी मेला में इतनी विचित्र घटनाएँ शायद ही अब देखने को मिले।
शिवेश उपाध्याय
बी.ए द्वितीय वर्ष
कला संकाय
काशी हिन्दू विश्विद्यालय
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