मैं , तुम और हम
माना कि इस जनम मैं और तुम हम न हो सके , और हम अब मैं और तुम जैसे ही मिलते हैं नाकी हम बनकर । पर क्या किया जाए हादसों का उनको होने से कौन रोक सकता है । जो हुआ उसमे न तुम्हारा कूसुर न मेरा । था अगर किसी का कूसुर तो वो था वक़्त । जिसने हमे ऐसे मोड़ पर खड़ा कर दिया कि जो हम थे वो मैं और तुम में बट गए ।
अरे ..... मैं कोई शिकायत नहीं करता तुमसे , बस .... तुम्हे किसी और का हम होते देख पाने की हिम्मत नहीं होती । हा ! जानता हूँ , एक पहाड़ रखा होगा तुमने मुझे किसी और का हम होते देखने के लिए । पर क्या करूँ ... तुम जैसा मजबूत भी तो नहीं मैं ।
क्या करूँ ! तुम्हे लेकर थोड़ा मतलबी बन जाता हूँ । इतना कि ..... तुमको अपना अब भी मानता हूँ जबकि तुम मेरी नहीं हो । हाँ ! तुम मेरी नहीं हो , पर मैं इसको याद नहीं रखना चाहता । अगर कुछ है जो मैं याद रखना चाहता हूँ वो है मेरी और तुम्हारी वो सारी हम वाली यादें ।
ख़ैर ! इस जनम में हम साथ नहीं तो क्या हुआ । हम फिर मिलेंगे ..... उन ऊँचे पहाड़ों के उस पार । जहाँ बस हम होंगे , एक दुसरे के लिए । और न होगी कोई छोटी बड़ी दिवार , बस होगा खुला आसमा और उसके नीचे हम बस हम ।
प्रीति रावत
महिला महाविद्यालय
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
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