जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान :- उज्जवल सिंह "उमंग"

                  जाति न पूछो साधु की

हिंदी साहित्य के इतिहास की पुनर्लेखन की बहुत ही ज्यादा अब जरूरत जान पड़ती हैं । इसका एक कारण यह भी है कि हिंदी साहित्य का जो इतिहास लगभग आज से 90 साल या 50 साल पहले लिखा गया, उसकी स्याही में वो दम नहीं रह गया होगा । स्याही में दम नहीं रह गया होगा, ऐसा कोई कैसे कह सकता हैं ? अगर कोई ऐसा कहता है तो वह मेरे अभिव्यक्ति पर सवाल खड़ा करता है और भारत में अभिव्यक्ति का संकट है, इसलिए भारत में असुरक्षा का माहौल है ।

           उक्त बातें मेरी निजी नहीं है, इसका अप्रत्यक्ष सम्बंध ज़बरदस्ती साहित्य इतिहास को आउटडेटेड और पता नहीं क्या क्या उपमा से नवाजने वाले बहुत सारे युवा आलोचकों का हैं । ख़ैर, अगर उनके नाम के साथ लिखा जाए तो यह भी अभिव्यक्ति का संकट ही मान लिया जाएगा और विकट स्थिति तो तब उतपन्न होगी जब उनके धड़े के लोग यह कहते हुए शायद कोई पुरस्कार न लौटते मिल जाये ।
खैर , मैं मुद्दे की बात पर आता हूँ , जैसा कि आजकल फेसबुक लाइव, वेबिनार और डिजिटल पढ़ाई का जमाना आ गया है तब अगर धरती का सबसे व्यस्त कोई प्राणी है तो वह है आज के युवा आलोचक । बस बेचारे इस बात के ताक में है कि कहीं कोई मंच छूट न जाएं, जहाँ से प्रवचन न हुआ हो । जैसे ही कार्यक्रम का संयोजक इन युवा आलोचकों को फोन या मैसेज करता है तो इनकी आँखे ऐसे चमक उठती है जैसे अंधेरी रात में टॉर्च की रौशनी से बिल्ली की आँखे । शुरुआत होते ही, संयोजक से विषय पूछा जाता हैं और तुरंत मोहर लग जाती हैं कि ठीक है फलां तारीख को इतने बजे मैं उपस्थित हो रहा हूँ, और कार्यक्रम में आगे क्या क्या होना चाहिए यह सब आलोचक ही तय कर के संयोजक को बता देते हैं । तारीख तय होते ही तैयारी शुरू कर दी जाती है, विचार के भोथरे हथियार पर नींबू और बालू नहीं रगड़ा जाता बल्कि उसी में डुबाकर किसी तरह उसे थोड़ा तेज करने की कोशिश की जाती , जिससे हिंदी साहित्य के इतिहास रूपी पके केला को सहजता पूर्वक काटा जा सकें । ख़ैर, लाइव का समय आता है, आलोचक साहब नहा धोकर , बढ़िया इत्र फुलेल मारकर एकदम से मोबाइल या लैपटॉप के आगे बैठते हैं । और अपना टेप रिकॉर्डर जैसे बजा देते हैं । 

        एक बार भक्तिकाल पर अपनी बात रखते हुए एक युवा आलोचक ने यह बात कही कि बात दरअसल यह है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल इतने बेगैरत किस्म के आदमी कैसे हो सकते हैं जो भक्तिकाल के ज्ञानाश्रयी शाखा में अनपढ़ कवियों की फौज खड़ी कर देते हैं । बताइये कम से कम युवा आलोचक के बारे में तो सोच लेते, बेचारे उनके दिल पर क्या गुजरती है, इसका ख्याल कर लेते । आखिर कबीर को ज्ञानाश्रयी शाखा में कैसे रख सकते हैं, जब कबीर खुद ही कहते हैं कि "मसि कागद छूऔं नहीं, कलम गहौं नहि हाथ/चारों जुग कै महातम कबिरा मुखहिं जनाई बात" । भाई जब पढ़े नहीं तो ज्ञान कैसे देंगे । यह एक साजिश है, गरीब अनपढ़ को पढ़ाने के लिए गलत इतिहास लिख दिया गया, इसको ठीक करने की जरूरत प्रतीत होती हैं और यह सहज विनम्रता के भाव से कर रहा हूँ जी, भले चेहरे पर वह भावभूमि दिखती न हो । बात यह है कि रामचंद्र शुक्ल ने केवल ब्राह्मणवादी इतिहास लिखा । रामानन्द को कबीर का गुरु बताना इसी साजिश का हिस्सा है जी । मेरे पास इसके सबूत है जी । 

        पता नहीं इन युवा आलोचकों को कबीर में अपार संभावनाएं दिखती हैं और दिखे भी कैसे नहीं, क्योंकि आचार्य शुक्ल ने उनके बाप का नाम, उनका गोत्र आदि क्यों नहीं ठीक-ठीक बताया । अरे भाई, जबतक हम कबीर को दलित और भी बहुत कुछ ब्ला ब्ला ब्ला सिद्ध न करेंगे, हमारी सिद्धि कैसे होगी । तब मुझे कबीर का ही एक दोहा ध्यान आता हैं कि "जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान/मोल करो तलवार की, पड़ा रहन दो म्यान ।" कबीर होते तो वो म्यान की बात न करते, लेकिन अब जबकि म्यान के बिना तलवार नहीं रखा जा सकता उसी तरह कबीर के कूल गोत्र का पता लगाएं बिना साहित्य इतिहास कैसे लिखा जाए । एक बार तो एक वरिष्ठ युवा आलोचक ने तो साहित्य के समस्त नामकरण को ही धोखा या कहे तो धत्ता बताते हुए कुछ नाम गिनाए, उससे अच्छा तो यह बात होती कि इन आलोचकों के पितामह के नाम पर ही सब नाम इकठ्ठे रख दिया जाए । एक अतिउत्साही आलोचक ने तो शुक्ल जी के इतिहास को मरी हुई लाश कहकर संबोधित किया, अब इन आलोचकों का अब्बा जिंदा लाश भी अविष्कार किये होंगे जिसका राज उन्हें ही मालूम, हम निरीह निपट निरक्षर लोग क्या ही जानें । हमने तो यहीं जाना था कि लाश मतलब मरी हुई काया ।

ख़ैर, लोकतंत्र में संवाद जरूरी है इसलिए उनको अभिव्यक्ति की आजादी है, अतः आप चुप रहे, क्योंकि साहित्य के इतिहास के किताब की स्याही में अब दम नहीं रह, अब दूसरा इतिहास लिखा जाएगा, जहाँ कबीर और इंदौरी प्रतिनिधि कवि के रूप में सबके सामने रखे जाएंगे ।


उज्ज्वल सिंह 'उमंग'
काशी हिंदू विश्वविद्यालय

उज्ज्वल सिंह 'उमंग' वर्तमान में हिंदी विभाग , काशी हिंदू विश्वविद्यालय में छात्र है । कई पत्र पत्रिकाओं में इनकी कविता/कहानी/लेख आदि प्रकाशित हुए है । "कुछ और कविताएँ" काव्यसंग्रह और "अधूरी कहानियाँ" कहानी संग्रह अभी तक किंडल स्टोर पर प्रकाशित हुई हैं । यूट्यूब चैनल  " साहित्य गंगा " एवं फेसबुक के माध्यम से साहित्य एवं समाज के मुद्दे पर मुखर है ।

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